एनडीए सरकार के तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे हो गए हैं, और इस दौरान “एक देश, एक चुनाव” कानून को कैबिनेट से पास किया गया है। इस कानून का उद्देश्य देशभर में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने का है, जिससे चुनावी प्रक्रिया सरल हो सके और खर्चों में कमी लाई जा सके। बीजेपी ने इसे अपने लोकसभा चुनावी घोषणा पत्र में प्रमुख वादों में से एक के रूप में प्रस्तुत किया था। उनका दावा है कि इस कानून से बार-बार चुनाव कराने की आवश्यकता नहीं होगी, जिससे संसाधनों की बचत होगी और प्रशासनिक कामकाज बाधित नहीं होगा।
भाजपा का मानना है कि इस कानून को अन्य राजनीतिक पार्टियों का भी समर्थन मिलेगा। पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से दिए गए अपने संबोधन में “एक देश, एक चुनाव” की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका मानना है कि देश को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अधिक कुशल और व्यवस्थित बनाया जा सके।
हालांकि, इस कानून को लेकर विपक्षी दलों और कुछ राज्य स्तरीय पार्टियों ने विरोध जताया है। उनका मानना है कि यह कानून बड़े दलों के पक्ष में काम करेगा और छोटी पार्टियों के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। छोटे दलों का तर्क है कि बड़े संसाधनों और राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दों के प्रभाव के कारण उन्हें नुकसान हो सकता है। इसके अलावा, संघीय ढांचे पर भी इसका असर पड़ सकता है, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों के चुनावी मुद्दे और प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं।
एक साथ चुनाव कराने से चुनावी खर्च कम होने की संभावना जताई जा रही है, लेकिन इसके साथ ही कुछ चुनौतियां भी हैं। यदि कोई राज्य सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल से पहले गिरती है, तो उस स्थिति में नए चुनाव कब कराए जाएंगे और कैसे, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। इसके अलावा, संविधान में संशोधन की आवश्यकता भी होगी, क्योंकि वर्तमान में केंद्र और राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं।
इस कानून को लागू करने के लिए एक व्यापक सहमति और संवैधानिक बदलाव की आवश्यकता होगी, जो राजनीतिक दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है।
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